भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक-एक कर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:29, 11 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |संग्रह=गीतां...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक-एक कर अपने
खोलो तार पुराने, खोलो तार पुराने
साधो यह सितार, बाँधकर नए तार.

खत्‍म हो गया दिन का मेला
सभा जुड़ेगी संध्‍या बेला
अंतिम सुर जो छेड़ेगा, उसके
आने की यह आ गई बेला--
साधो यह सितार, बाँधकर नए तार.

द्वार खोल दो अपने हे
अंधेरे आकाश के ऊपर से
सात लोकों की नीरवता
आए तुम्‍हारे घर में.

इतने दिनों तक गाया जो गान
आज हो जाए उसका अवसान
यह साज है तुम्‍हारा साज
इस बात को ही दो बिसार
साधो यह सितार, बाँधकर नए तार.