टूटे सपने / हरिवंशराय बच्चन
---और छाती बज्र करके
सत्य तीखा
आज वह
स्वीकार मैंने कर लिया है,
स्वप्न मेरे
ध्वस्त सारे हो गए हैं!
किंतु इस गतिवान जीवन का
यही यो बस नही है.
अभी तो चलना बहुत है,
आहूत सहना, देखना है.
अगर मिट्टी से
बने ये स्वप्न होते,
टूट मिट्टी में मिले होते,
ह्रदय में शांत रखता,
मृतिका की सर्जना-संजीवनी में
है बहुत विश्वास मुझको.
वह नही बेकार होकर बैठती है
एक पल को,
फिर उठेगी.
अगार फूलों से
बने ये स्वप्न होते
तो मुरझाकर
धरा पर बिखर जाते,
कवि-सहज भोलेपन पर
मुसकराता, किंतु
चीत्त को शांत रखता,
हार सुमन में बीज है,
हार बीज में है बन सुमन का.
क्या हुआ जो आज सूखा,
फिर उगेगा,
फिर खिलेगा.
अगार कंचन के
बने ये स्वप्न होते,
टूटते या विकृत होते,
किसलिए पछताव होता?
स्वर्ण अपने तत्व का
इतना धनि है,
वक्त के धक्के,
समय की छेडखानी से
नाही कुच भी उसका बिगरता.
स्वयं उसको आग में
मैं झोंक देता,
फिर तपाता,
फिर गलाता,
ढालता फिर!
किंतु इसको क्या करूँ मैं,
स्वप्न मेरे कांच के थे!
एक स्वर्गिक आंच ने
उनको ढला था,
एक जादू ने सवारा था, रंगा था.
कल्पना किरणावली में
वे जगर-मगर हुए थे.
टूटने के वास्ते थे ही नाही वे
किंतु टूटे
तो निगलना ही पड़ेगा
आँख को यह
क्षुर-सुतिक्षण यथार्थ दारुण!
कुछ नहीं इनका बनेगा.
पाँव इन पर धार बढ़ना ही पड़ेगा
घाव-रक्तस्त्राव सहते.
वज्र छाती पर धंसालो,
पाँव में बांधा ना जाता.
धेर्य मानव का चलेगा
लड़खड़ाता, लड़खड़ाता, लड़खड़ाता.