भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दानवों का शाप / हरिवंशराय बच्चन

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:10, 20 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह=त्रिभंग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देवताओं !
दानवों का शाप
आगे उतरता है !

सिंधु-मंथन के समय
जो छल-कपट,
जो क्षुद्रता,
जो धूर्तता,
तुमने प्रदर्शित की
पचा क्या काल पाया,
भूल क्या इतिहास पाया?
भले सह ली हो,विवश हो,
दानवों ने;
क्षम्य कब समझी उन्होंने ?
सब प्रकार प्रवंचितों ने
शाप जो उस दिन दिया था
आज आगे उतरता है.
जानते तुम थे
कि पारावार मंथन
हो नहीं सकता अकेले देव-बल से;
दानवों का साथ औ'सहयोग
चाह था इसी से.
किंतु क्या सम-साधना-श्रम की व्यवस्था,
उभय पक्षों के लिए,
तुमने बनाई ?
किया सोचो,
देवताओं !
जब मथानी के लिए
मन्द्र अचल तुमने उखाड़ा
और ले जाना पड़ा उसको जलधि तक
मूल का वह भीम,भारी भाग
तुमने दानवों की पीठ पर लादा
शिखर का भाग हल्का
तुम चले कर-कंज से अपने सम्भाले.
दानवों की पिंडलियाँ चटकीं,
कमर टूटी,
हुई दृढ रीढ़ टेढ़ी,
खिंची गर्दन,
जीभ नीचे लटक आई,
तन पसीने से नहाया,
आँख से औ' नाक से
लोहू बहा,
मुँह से अकरपन फेन छूटा;
औ'तुम्हारे कंज-पद की
चाप भी अंकित न हो पाई धरा पर !

और बासुकि-रज्जू
दम्मर की मथानी पर
लपेटी जब गई तब
किया तुमने दानवों को
सर्प-फन कि ओर
जिनके थप्पड़ों कि चोट
मंथन में अनवरत
झेलते वे रहे क्षण-क्षण !
और खींचा-खींच में जो
नाग-नर ने
धूम्र-ज्वाला पूर्ण शत-शत
अंधकर फुत्कार छोड़े
और फेंके
विष कालानल हलाहल के तरारे
ओड़ते वे रहे उनको
वीरता से,धीरता-गंभीरता से--कष्ट मारे:
जबकि तुमने
कंज-कर से
नागपति की पूँछ
सहलाई--दुही भर !

अन्त में जब
अमृत निकला,
ज्योति फैली,
तब अकेले
उसे पीने के लिए
षड्यंत्र जो तुमने रचा
सब पर विदित है
एक दानव ने
उसे दो बून्द चखने का
चुकाया मोल आना शीश देकर.

(औ'अमृत पीकर
अमर जो तुम हुए तो
बे-पिए क्या मर गए सब दैत्य-दानव ?
आज भी वे जी रहे हैं,
आज भी सन्तान उनकी
जी रही दूधों नहाती,
और पूतों और पोतों
फल रही है,बढ़ रही है.)

छल-कपट से,
क्षुद्रता से,
धूर्तता से,
सब तरह वंचित उन्होंने
शाप यह उसदिन दिया था:--

सृष्टि यदि चलती रही तो
अमृत-मंथन की जरुरत
फिर पड़ेगी !
और मंथन--
वह अमृत के
जिस किसी भी रूप की ख़ातिर
किया जाए--
बिना दो देह-दानव पक्ष के
संभव न होगा
किंतु अब से
मन्दराचल मूल का
वह कठिन,ठोस,स्थूल भारी
भाग देवों की
कमर पर,
पीठ-कंधों पर पड़ेगा,
और दानव शिखर थामे
शोर भर करते रहेंगे,
'अमृत जिंदाबाद,जिन्दा--!'
ख़ास उनमे
अमृत पर व्याख्यान देंगे.
और मंथन-काल में भी
देवतागण सर्प का मुख-भाग
पकडेंगे,
फनों की चोट खाएँगे,
जहर कि फूँक घूटेंगे,
मगर दल दानवों का
सर्प कि बस दम हिलाएंगे;
अमृत जब प्राप्त होगा
वे अकेले चाट जाएँगे.

सुनो,हे देवताओं !
दानवों का शाप
आगे आज उतरा .

यह विगत संघर्ष भी तो
सिंधु-मंथन की तरह था.
जानता मैं हूँ कि तुमने हार धोया,
कष्ट झेला,
आपदाएँ सहीं,
कितना जहर घूँटा !
पर तुम्हारा हाथ छूँछा !
देवता जो एक--
दो बूँदें अमृत की
पान करने को,पिलाने को चला था,
बलि हुआ !
लेकिन उन्होंने
शोर आगे से मचाया,
पूँछ पीछे से हिलाई,
वही खीस-निपोर ,
काम-छिछोर दानव ,
सिंधु के सब रत्न-धन को
आज खुलकर भोगते हैं.
बात है यह और
उनके कंठ में जा
अमृत मद में बदलता है,
और वे पागल नशे में
हद,हया,मरजाद
मिट्टी में मिलाकर
नाच नंगा नाचते हैं !
और हम-तुम
उस पुरा अभिशाप से
संतप्त-विजड़ित
यह तमाशा देखते हैं.