भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बादल-१ /गुलज़ार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:24, 24 सितम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलज़ार |संग्रह=रात पश्मीने की / ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात को फिर बादल ने आकर
गीले गीले पंजों से जब दरवाजे पर दस्तक दी,
झट से उठ के बैठ गया मैं बिस्तर में

अक्सर नीचे आकर रे कच्ची बस्ती में,
लोगों पर गुर्राता है
लोग बेचारे डाम्बर लीप के दीवारों पर--
बंद कर लेते हैं झिरयाँ
ताकि झाँक ना पाये घर के अंदर--

लेकिन, फिर भी--
गुर्राता, चिन्घार्ता बादल--
अक्सर ऐसे लूट के ले जाता है बस्ती,
जसे ठाकुर का कोई गुंडा,
बदमस्ती करता निकले इस बस्ती से!!