भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अरे ख्वाबे मोहब्बत की / फ़िराक़ गोरखपुरी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:32, 8 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी |संग्रह= }} [[Category:ग...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अरे ख्वाबे-मुहब्बत की भी क्या ता'बीर होती है.
खुलें आँखे तो दुनिया दर्द की तस्वीर होती है.
उमीदें जाए और फिर जीता रहे कोई.
न पूछ ऐ दोस्त!क्या फूटी हुई तक़दीर होती है.
सरापा दर्द होकर जो रहा जीता ज़माने में.
उसी की खाक़ यारो गैरते-अक्सीर होती है.
जला जिस वक्त परवाना,निगाहें फ़ेर ली मुझसे.
भरी महफ़िल में डर पर्दा मेरी ताज़ीर होती है.
अज़ल आई,बदनामे-मुहब्बत हो के जाता हूँ.
वफ़ा से हाथ उठाता हूँ,बड़ी तक़सीर होती है.
किसी की ज़िन्दगी ऐ दोस्त जो धड़कों में गुज़री थी.
उसी की झिलमिलाती शमअ इक तस्वीर होती है.
'फ़िराक़'इक शमअ सर धुनती है पिछली शब जो बालीं पर
मेरी जाती हुई दुनिया की इक तस्वीर होती है.