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कवि का स्वप्न / विमल राजस्थानी

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“जाग उठे हैं तन्द्रा तज निज झूम-झूम कर गाने वाले
अँगड़ाई ले रहे आज पानी में आग लगाने वाले

(१)
दौड़ी बिजली बच्चों से लेकर बूढों तक की रग-रग में
लँगड़ों को पग, मिली ज्योति अन्धों को जग-मग की जगमग में
(२)
कंधो पर धर कर कुदालियाँ चले आज उस ओर दीवाने
जिधर राख बन मिटे कई थे देश-दीप पर बन परवाने
(३)
जिन पंथों से गुजर चुके थे निन्द्रित नाग जगाने वाले
गाने वाले झूम-झमक, पानी में आग लगाने वाले
(४)
हाथ पसारे आज मुक्ति की माँग रही है भीख गरीबी
पानी हुई हार कर आखिर सुन शिशुओं की चीख गरीबी
(५)
लज्जित हो बन स्वयम् नग्न है क़दमों पर लोटती नग्नता
उत्सव लगी मनाने रौंदी—खंडहरों की नग्न भग्नता
(६)
ढाँप चुके कालि पट्टी से आँख दिखाने वाले
धरती खुरच रहे हैं नख से जीवन को कलपाने वाले
(७)
शुशुओं ने दी फेंक गुड्डियाँ कड़की करुनों की तरुणाई
फड़क पड़ीं अलमस्त हड्डियां बुड्ढों ने भी ली अँगडाई
(८)
माँ-बहनें बिजिली बन बैठीं मूँछ ऐठने लगी जवानी
कसमस-कसमस करती; जकड़ी जंजीरों में जगी जवानी
(९)
सजग हो उठे अंगारों पर हँस-हँस पाँव बढ़ाने वाले
सावधान हो उठे नमक के जल से घाव धुलाने वाले
(१०)
बाँध कमर तैयाए खड़े हैं चाँद चूम कर आने वाले
पलक मारते दुनिया को मिट्टी में रौंद मिलाने वाले
(११)
आज स्वयम् शिव बन बैठे हैं तन पर भस्म रमाने वाले
चढ़ तख्ते पर, चूम रस्सियाँ हँस-हँस प्राण लुटाने वाले
नत मस्तक हैं आज उन्हीं के आगे प्रलय मचाने वाले
(१२)
मानवता स्वक्छंद, बंदिनी—दानवता चरणों की दासी
हत्यारों, शोषकों, पिशाचों—के कंठों से लिपटी फाँसी
(१३)
उतर पड़े सुख-स्वर्ग घरों में दूर करोड़ों कोस उदासी
दर्द भरे जीवन में छिड़की आज किसी ने मधुर सुरा सी
(१४)
नहीं रहे वे आज अभागे ‘दूध-दूध चिल्लाने वाले
नहीं रहे वे अधम कुत्तों को दूध पिलाने वाले
(१५)
जूठी, फिंकी पत्तलों पर जो आज नहीं ललचाने वाले
आज गिने जाते धनिकों की--श्रेणी मे ‘दो दाने वाले’
(१६)
रिमझिम बरसे मेध अमिय के निधियाँ बिखर गयीं खेतों में
रुपये तो हो गये ठीकरे हीरे चमक उठे रेतों में
(१७)
जल-भून कर हो रहे राख खुद बुझी वहिल् सुलगाने वाले
शेष रह रहे दुनिया में बस, झूम-झमक कर गाने वाले”