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व्याकुल यह बादल की साँझ / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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आमार दिन फुरालो व्याकुल बादल साँझे

व्याकुल यह बादल की साँझ
दिन बीता मेरा, बीता ये दिन
मेघों के बीच सघन
मेघों के बीच ।
बहता जल छलछल बन की है छाया
हृदय के किनारे से आकर टकराया ।
गगन गगन क्षण क्षण में
बजता मृदंग कितना गम्भीर ।
अनजाना दूर का मानुष वह कौन
आया है पास आया है पास ।
तिमिर तले नीरव वह खड़ा हुआ छुप छुप
छाती से झूल रही माला है चुप-चुप,
विरह व्यथा की माला,
जिसमें है अमृतमय गोपन मिलन ।
खोल रहा वह मन के द्वार ।
चरण-ध्वनि उसकी ज्यों लगती है पहचानी ।
उसकी इस सज्जा से मानी है हार ।


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 29 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)