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जीवन में बढ़ रही हैं / प्राण शर्मा
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जीवन में बढ़ रही हैं कुछ ऐसी जरूरतें,
ऐसी जरूरतें कि हों जैसे कयामतें।
मन क्यों न ले बलाएँ भला उनकी बार-बार,
होती हैं नन्हों-मुन्नों की प्यारी शरारतें।
देते हैं मेरे दोस्त तेरी ही भलाई को,
कुछ मान कर तो देख बड़ों की हिदायतें।
दो वक़्त की दो रोटियाँ सबको ही चाहिए,
भूखा सा शख्स क्यों न करेगा बगावतें।
ए दोस्त कौन पूछेगा हर काम-काज को,
मिल जाये आदमी को अगर सब सहूलतें।
दुश्मन की तरह आप रुकावट नहीं बनें,
गर छाती हैं तो छाने दें उन पर मुहब्बतें।
ए `प्राण` क्यों न उनकी सुनी अनसुनी करें,
करते हैं रोज़-रोज़ जो ढेरों शिकायतें।