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अपनी भाषा के प्रति-1 / सत्यनारायण सोनी
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पुरखों ने गढ़े थे जो शब्द
मेरी जुबान को करते हैं गतिशील
देते हैं आह्लादित कर देने वाला प्रवाह
इसके एक-एक शब्द पर
मन कह उठता-
वाह, वाह!
तुम्हारे कहने से
सीख तो लूं तुम्हारी भाषा
इसमें हरज भी क्या है
मेरे भाषा-ज्ञान में
एक भाषा का नाम और जुड़ जाएगा
और मेरे लिए ज्ञान-कोश की
एक और खिड़की खुल जाएगी।
मगर तुम्हारे कहने से
अपनी भूल कैसे जाऊं?
जिसका एक-एक शब्द
मेरे रक्त में प्रवाहित होकर
मुझे देता है जीवनी शक्ति
अपने जीवित होने का
कराता है अहसास।
भाषा को भूलना
अपने अतीत को भूलना है
भाषा को भूलना
अपने पुरखों को भूलना है
अपनी संस्कृति,
अपने परिवेश को भूलना है
अपने आपको भूलना है।
तुम्हारे कहने से
मैं अपना वजूद मिटा दूं?
2012