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रोऊँ मैं सागर के किनारे / शैलेन्द्र

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रोऊँ मैं सागर के किनारे, सागर हँसी उड़ाए
क्या जानें ये चंचल लहरें, मैं हूँ आग छुपाए

मैं भी इतना डूब चुका हूँ, क्या तेरी गहराई
काहे होड़ लगाए मो से, काहे होड़ लगाए
रोऊँ मैं सागर के किनारे

तुझ में डूबे चाँद मगर इक चाँद ने मुझे डुबाया
मेरा सब कुछ लूट के ले गई, चाँदनी रात की माया
अर्मानों की चितह सजाकर मैंने आग लगाई
अब क्या आग बुझाए मेरी, अब क्या आग बुझाए
रोऊँ मैं सागर के किनारे...