भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जमेगी कैसे बिसाते-याराँ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:11, 7 नवम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ |संग्रह=दस्ते-तह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जमेगी कैसे बिसाते-याराँ के शीशा-ओ-आम बुझ गये हैं
सजेगी कैसे शबे-निगाराँ के दिल सरे-शाम बुझ गये हैं

वो तीरगी है रहे-बुतान में चिरागे-रुख़ है न शम्मे-वादा
किरण कोई आरजू की लाओ की सब दरो-बाम बुझ गये हैं

बहुत संभाला वफ़ा का पैमां मगर वो बरसी है अबके बरखा
हर एक इकरार मिट गये हैं, तमाम पैगाम बुझ गये हैं

करीब आ ऐ महे-शबे-ग़म नज़र पे खुलता नहीं कुछ इस दम
की दिल पे किस-किसका नक़्श बाकी है कौन से नाम बुझ गये हैं

बहार अब आके क्या करेगी की जिनसे था जश्ने-रंगों-नगमा
वो गुल सरे-शाख़ जल गये हैं, वो दिल तहे-दाम बुझ गये हैं