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पूर्णता की तलाश में / जय जीऊत

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एक मनोवांछित पड़ाव की तलाश में
मैं चिर यायावर बना भटक रहा हूं
एक अरसा पहले जहां बसेरा किया था
आज उसी मुकाम पर पुनःआ ठहरा हूं
इस अन्तराला के कायापलट से हैरान हूं
 कल जहां ऊंघ रही बस्ती का सूनापन था
आज वहां एक आबाद शहर की चहल-पहल है
कल जहां पगडंडियों का संकरापन था
आज वहां राजमार्गों की गहमा-गहमी है
कल जहां पनघटों की ठेलमठेल थी
आज वहां नलों की सुभिताएं हैं
कल जहां बैलगाड़ियों की धुकधुकी थी
आज वहां यातायात की सुविधाएं हैं
कल जहां झोंपड़ियों की सादगी थी
आक वहां हवेलियों की ठाठ-ठसक है
कल जहां दीपकों का धुंधलापन था
आज वहां बिजलियों की चकाचौंध है
परन्तु
इस सुख-समृद्धि के बीच
झुर्रियों से बोझिल यह माथा कैसा ?
इन सिद्धियों के बीच हिंसा-प्रतिहिंसा से सहम यह चेहरा कैसा ?
इस खुशहाली के बीच
हृदय में रेंगता यह संशय कैसा ?
इस भीड़-भाड़ के बीच
आंखों में वीरानियों का यह आलम कैसा ?
इन हंसी-कहकहों के बीच
तपते आंसुओं से सराबोर यह कपोल कैसा ?
इन उपलब्धियों के बीच
बेचारगी ओढ़े यह मानव कैसा ?
चौंधिया देने वाली प्रगति करने वाले मेरे भाइयो
तुम्हारी इन अभूतपूर्व तरक्कियों से मैं आक्रांत हूं
तरक्कियों की इस अन्धी-सरपट दौड़ में
मानव जहां अपनी अस्थायी विजय पर किलक रहा है
वहां क्षत-विक्षत मानवता के आर्तनाद से
धरती का चप्पा-चप्पा संत्रस्त है ।
मेरे बन्धुओ !
अतीत के ढहते इन मलबों तले
जीवन-मूल्यों की जो लाशें कराह रही हैं
उससे मेरी भटकन में व्यवधान पड़ रहा है ।
इसे तुम मेरी गुस्ताखी समझो
या मेरे स्वभाव की निर्भीकता
कि सच्चाई बयान किये बिना
मेरी विकलता को राहत नहीं पहुंचने वाली ।
दरअसल तुम्हारी ये आधी-अधूरी तरक्कियां
मुझे रास आतीं नहीं
इसीलिए पूर्णता की तलाश मे
चिर यायावर बना भटक रहा हूं
भटके जा रहा हूं मैं
जाने और कब तक !