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विडम्बना / सलिल तोपासी
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जीवन उसी का, राहें उसी की
मंज़िल भी उसकी,
मगर कदम उसके नहीं।
बस बहकते-बहकाते चला जा रहा है
आखें हैं लेकिन,
परखने की शक्ति नहीं।
ढूँढ़ रहा है मुसाफिर अपनी डगर को
अपनी आखों में पट्टी बांधे
सहारा तो है पर दिशा ही नहीं।
करोड़ों का बंगला है लाखों का पलंग
फिर भी दो रुपए की नींद नहीं।
सगे संबंधियों से घिरा है हर कोई
समय आने पर कौन काम आता है
कोई चाचा, मामा या भाई नहीं।
भक्त है, भगवान भी विराजनमान है
पुरोहित कर रहे मंत्रोच्चारण
लेकिन श्रद्धा नहीं।
कैसी विडम्बना है कैसा उलटा खेल
मांस का शरीर तो है, लेकिन उस में जान नहीं।