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मैं हूँ शब्द! / सलिल तोपासी
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मनुष्य के द्वन्द्व भरे विचारों को चीर कर
कलम या कीबॉर्ड की बैसाखी लिए,
कागज़ की सफ़ेदी को भद्दा करते हुए,
तो कभी वक्ता के मुख से
टूट के बिखर कर,
कई बार अपने अस्तित्व की तलाश करता हूँ
आखिर कौन हूँ मैं?
मैं ही हूँ शब्द!
फिर मेरी गति क्या है?
भाषा की एक इकाई के अलावा,
आकार दी गई रेखाओं का मात्र चित्र ही तो हूँ!
लेकिन इन सब से परे
मैं शब्द हूँ!
अव्यक्त को व्यक्त,
निराकार को साकार,
निरर्थक को सार्थक,
अदृश्य को दृश्य बनाने की,
मुझमें शक्ति है मैं ही हूँ शब्द!
जिस पर संपूर्ण संसार टिका हुआ है,
जो समस्त वाङ्गमय का उद्गम है
मैं ही हूँ शब्द!
बस!
मेरे दो ही जीवनाधार
भाषा और मनुष्य,
जिनकी अस्मिता में ही
मेरी पहचान है।