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बापू के संदेश / वशिष्ठ कुमार झमन

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हे बापू!
देते है रोज़,
कपबोर्ड पर बैठे,
आपके बन्दर,
कुछ संदेश
सतयुग के

फिर भी,
बज जाते हैं कान मेरे
बच्चों, स्त्रियों, निर्दोषों के
फटते जिस्मों के धमाकों से
लाशों के बीच,
निरंतर चलते,
बन्दूकों के शोर से

धुन्धली पड़ जाती है आँखें मेरी
माक्डोनल्ड के सामने
कराहते भिखारी की
भूख पर
सीना ताने
ऊँची – ऊँची इमारतों से
कुछ ही दूर
बरसात के आतिथ्य को स्वीकारते
बेछत आशियानों पर

और गालियाँ भी
निकल जाती हैं
बार बार मुख से मेरी
कभी मुखौटों की आढ़ में,
कभी सरे आम,
चारों ओर से बंधे
संघर्षरत लोगों को
लूटते नेताओं पर
हिंसा ये प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष
कब तक चलेगा !
चिन्तन मनन करके
थक गया मैं
अब आप ही बताइए बापू…
कैसे सुनेगा
कलियुग का पशुश्रेष्ठ
सतयुग के बन्दरों की!

कभी मन हुआ कि
आप ही आ जाएँ
फिर से राह दिखाएँ
परन्तु
कैसे स्वीकारेगा वह
जिसका अस्तित्व ही
सत्य और झूठ के बीच
झूल झूल कर
मिथ्या बन गया है,
आपके सत्य को

कैसे अपनाएगा वह,
जिसके लिए
ख्याति, जाति, नीति
हर बहाना
बन गया जायज़
हिंसा हेतु,
आपके अहिंसा को

मुझ लघु मानव की
लघु दृष्टि में तो
अच्छा है बापू कि आप
फिर नहीं आते⃓
आप फिर आएँगे
तो आज का मानव
अपने घर बुलाएगा,
आपका स्वागत करेगा,
खिलाएगा, पिलाएगा,
आपके संदेशों को भी सुनेगा
और फिर उनपर…
हँस देगा
खिलखिलाकर