भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक पारदर्शी कविता / पंखुरी सिन्हा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:57, 6 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पंखुरी सिन्हा |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लौटकर यात्रा से नहीं
शिकार से नहीं
आखेट से नहीं
एक भयानक धुँध भरे जंगल से
जहाँ सूझता न हो हाथ को हाथ
और काई इतनी मोटी
इतनी गहरी
मखमली भी
फिसलन भरी
कि पतंग हो गया हो दिल
तितली भरा
तितली ही हो गई हो साँस
भाप नहा गई हो पसीने से उसे
पकड़ते उसकी बात का सार
इतनी भयानक धुँध में
कि चिड़िया बन गया हो दिल
और डैने समेटते हों कई-कई क़िस्म के पक्षी
विशालकाय क़रीब उसके ।