भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कोहरा है मैदान में / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:17, 11 जनवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार रवींद्र }} Category:कविता <poem> कोह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोहरा है मैदान में
उड़कर आये इधर कबूतर
बैठे रोशनदान में

रहे खोजते वे सूरज को
सुबह-सुबह
पाला लटका हुआ पेड़ से
जगह-जगह

कोहरा है मैदान में
दिन चुस्की ले रहा चाय की
नुक्कड़ की दूकान में

आग तापते कुछ साये
दिख रहे उधर
घने धुंध में, लगता
तैर रहे हैं घर

कोहरा है मैदान में
एक-एक कर टपक रहे
चंपा के पत्ते लॉन में

कोहरे में सब कुछ
तिलिस्म-सा लगता है
पिंजरे में तोता भी
सोता-जगता है

कोहरा है मैदान में
डूबी हैं सारी आकृतियाँ
जैसे गहरे ध्यान में