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कोहरा है मैदान में / कुमार रवींद्र
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कोहरा है मैदान में
उड़कर आये इधर कबूतर
बैठे रोशनदान में
रहे खोजते वे सूरज को
सुबह-सुबह
पाला लटका हुआ पेड़ से
जगह-जगह
कोहरा है मैदान में
दिन चुस्की ले रहा चाय की
नुक्कड़ की दूकान में
आग तापते कुछ साये
दिख रहे उधर
घने धुंध में, लगता
तैर रहे हैं घर
कोहरा है मैदान में
एक-एक कर टपक रहे
चंपा के पत्ते लॉन में
कोहरे में सब कुछ
तिलिस्म-सा लगता है
पिंजरे में तोता भी
सोता-जगता है
कोहरा है मैदान में
डूबी हैं सारी आकृतियाँ
जैसे गहरे ध्यान में