भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जूड़ा के फूल / अनुज लुगुन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:05, 27 जनवरी 2013 का अवतरण (अनिल जनविजय (वार्ता) द्वारा किए बदलाव 149407 को पूर्ववत करें)
छोड़ दो हमारी ज़मीन पर
अपनी भाषा की खेती करना
हमारे जूड़ों में
नहीं शोभते इसके फूल,
हमारी घने
काले जूड़ों में शोभते हैं
जंगल के फूल
जंगली फूलों से ही
हमारी जूड़ों का सार है,
काले बादलों के बीच
पूर्णिमा की चाँद की तरह
ये मुस्काराते हैं ।