भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुँआ (20) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:59, 8 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |संग्रह=धुँआ / ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हम कोशिश करेंगे, समझ सकें
अर्थ इस धुऐं का
परंतु यह सिर्फ एक शब्द ही नहीं है
ढूंढ सकें , इसे किसी शब्दकोष में ।
यह तो एक विवाद है
इसे हम सामाजिक कहें
या रूप दें धार्मिकता का ।
विवाद को सुलझाने में
एक प्रश्न उठता है
समाज बड़ा या बड़ा धर्म ।
पाऐंगे न समाज, धर्म के बिना कुछ है
और न ही धर्म, समाज के बिना ।
इसलिए दोनों एक दूसरें को
एक दूसरे से बड़ा समझना छोड़ दें
देखोगे मानव धर्म को समझने लगेगा
वह धर्म को मानवता के समीप ले जाएगा ।
मानवता और धर्म के इस मिलन से
समाज बटने से बच जाएगा
इस प्रकार हम सब समझ पाएंगे
अर्थ इस आतंकवाद के धुऐं का