धुँआ (36) / हरबिन्दर सिंह गिल
इस धुएँ का सबसे बड़ा कारण
यह है कि मानवता का हृदय
समाज में छिन्न-भिन्न हुआ पड़ा है
और सब लिए फिरते हे इन टुकड़ों को
और उससे भी विचित्र
कोई पहचान नहीं रह गई इन टुकड़ों की ।
किसी को महसूस नहीं हुआ
कि ये रो रहे हैं
‘‘हम टुकड़े नहीं वस्तु के
हम टुकडे़ हैं दिल के
दिल जो किसी मां का है
मां जिसने सभी धर्मों को जन्म दिया ।
जोड़ो इनको, जो जोड़ सको
इससे पहले कि धड़कते टुकड़े
कहीं धड़कना न बंद कर दें ।
इन्हीं धड़कनों में
धड़कते हैं, दिल असंख्य ।
महसूस करो धड़कन इन टुकड़ों की
आवाज सुनो उनके रोने की ।
वो रो नहीं रहे, रहे हैं भर सिसकियां
सिसकियां जो दबकर रह गई है
धर्म के झुठे नारों में ।
नारे जो हल्ला कर रहे हैं
जिसमें नहीं कोई राग, विराग का ।
हो जाओ पूरे वैरागी पाओगे ये टुकड़े
किसी वस्तु के नहीं, बल्कि मानवता के हैं ।
यह उतना ही कट्टर सच है
जितना कोई कट्टर धार्मिक
इसलिए सच्चा कट्टर धार्मिक वही होगा
जो इस धुएँ का दुश्मन होगा ।