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किसी दश्त ओ दर से / अब्दुल हमीद

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किसी दश्त ओ दर से गुज़रना भी क्या
हुए ख़ाक जब तो बिखरना भी क्या

वही इक समंदर वही इक हवा
मेरी शाम तेरा सँवरना भी क्या

लकीरों के हैं खेल सब ज़ाविए
इधर से उधर पाँव धरना भी क्या

मुझे ऊब सी सब से होने लगी
ये जीना भी क्या और मरना भी क्या

अगर उन से बच कर निकल जाइए
तो फिर उस की आँखों से डरना भी क्या

घने जंगलों की बुझी कैसे आग
कहीं पास था कोई झरना भी क्या

किसी तरह से उस का घर तो मिला
मगर अब मुलाक़ात करना भी क्या