भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दारिद्र को जारन को नहीं आयो / शिवदीन राम जोशी

Kavita Kosh से
Kailash Pareek (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:22, 19 फ़रवरी 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अर्जुन दग्ध कियो वन खाण्डव,
                जाय यो काज तो तुच्छ सरायो ।
केसरी पुत्र कछु न करी अहो !
                स्वर्ण की लंक को जाय जरायो ।
त्रिभुवन नाथ मदन को जारि के,
                  लोक आनन्द को दूर दुरायो ।
सब जन के मन में ताप करे,
           रे ! दारिद्र को जारन को नहीं आयो ।