भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाँ यही शहर मेरे ख़्वाबों / अकबर हैदराबादी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:13, 19 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अकबर हैदराबादी }} Category:गज़ल <poeM> हाँ ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हाँ यही शहर मेरे ख़्वाबों का गहवारा था
इन्ही गलियों में कहीं मेरा सनम-ख़ाना था
इसी धरती पे थे आबाद समन-ज़ार मेरे
इसी बस्ती में मेरी रूह का सरमाया था
थी यही आब ओ हवा नश-ओ-नुमा की ज़ामिन
इसी मिट्टी से मेरे फ़न का ख़मीर उट्ठा था
अब न दीवारों से निस्बत है न बाम ओ दर से
क्या इसी घर से कभी मेरा कोई रिश्ता था
ज़ख़्म यादों के सुलगते हैं मेरी आँखों में
ख़्वाब इन आँखों ने क्या जानिए क्या देखा था
मेहर-बाँ रात के साए थे मुनव्वर ऐसे
अश्क आँखों में लिए दिल ये सरासीमा था
अजनबी लगते थे सब कूचा ओ बाज़ार 'अकबर'
ग़ौर से देखा तो वो शहर मेरा अपना था.