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अचानक तेरी याद का सिलसिला / मोहम्मद अलवी

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अचानक तेरी याद का सिलसिला
अँधेरे की दीवार बन के गिरा.

अभी कोई साया निकल आएगा
ज़रा जिस्म को रौशनी तो दिखा.

पड़ा था दरख़्तों तले टूट कर
चमकती हुई धूप का आईना.

कोई अपने घर से निकलता नहीं
अजब हाल है आज कल शहर का.

मैं उस के बदन की मुक़द्दस किताब
निहायत अक़ीदत से पढ़ता रहा.

ये क्या आप फिर शेर कहने लगे
अरे यार 'अल्वी' ये फिर क्या हुआ.