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आईने मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गए / ज़हीर रहमती

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आईने मद्द-ए-मुक़ाबिल हो गए
दरमियाँ हम उन के हाइल हो गए

कुछ न होते होते इक दिन ये हुआ
सैकड़ों सदियों का हासिल हो गए

कश्तियाँ आ कर गले लगने लगीं
डूब कर आख़िर को साहिल हो गए

और एहसास-ए-जिहालत बढ़ गया
किस क़दर पढ़ लिख के जाहिल हो गए

अपनी अपनी राह चलने वाले लोग
भीड़ में आख़िर को शामिल हो गए

तंदुरुस्ती ज़ख़्म-कारी से हुई
ये हुआ शर्मिंदा क़ातिल हो गए

हुस्न तो पूरा अधूरे-पन में है
सब अधूरे माह-ए-कामिल हो गए