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हर तरफ़ हंगामा-ए-अजलाफ़ है / वली दक्कनी
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हर तरफ़ हंगामा-ए-अजलाफ़ है
मत किसू से मिल अगर अशराफ़ है
हर सहर तुझ नैमत-ए-दीदार की
आरसी कू, इश्तिहा-ए-साफ़ है
नईं शफ़क़ हर शाम तेरे ख़्वाब कूँ
पंजा-ए-ख़ुर्शीद मख़मलबाफ़ है
नक़्द-ए-दिल दूजे कूँ दुनिया तुझ बग़ैर
हक़ शनासों के नजि़क अशराफ़ है
क्या करूँ तफ़सीर-ए-ग़म, हर अश्क-ए-चश्म
राज़ के क़ुर्आन का कश्शाफ़ है
मस्त-ए-जाम-ए-इश्क़ कूँ कुछ ग़म नहीं
ख़ातिर-ए-नासेह अगर नासाफ़ है
वस्वसे सूँ दिल के मत कर ज़र क़लब
सीना साफ़ों की नज़र सर्राफ़ है
रहम करता नईं हमारे हाल पर
शोख़ है, सरकश है, बेइंसाफ़ है
सूरत-ए-नारस्ता ख़त है जल्वागर
इस क़दर चेहरा सनम का साफ़ है
ऐ 'वली' तारीफ़ उसकी क्या करूँ
हर तरह मुस्तग़नी-उल-औसाफ़ है