भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कबाड़खाना / प्रतिभा सक्सेना
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:15, 8 मार्च 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना }} {{KKCatKavita}} <poem> हर घर म...' के साथ नया पन्ना बनाया)
हर घर में
कुछ कुठरियाँ या कोने होते हैं,
जहाँ फ़ालतू कबाड़ इकट्ठा रहता है.
मेरे मस्तिष्क के कुछ कोनों में भी
ऐसा ही अँगड़-खंगड़ भरा है!
जब भी कुछ खोजने चलती हूँ
तमाम फ़ालतू चीज़ें सामने आ जाती हैं,
उन्हीं को बार-बार,
देखने परखने में लीन
भूल जाती हूँ,
कि क्या ढूँढने आई थी!