बहुत दिन हो गए / प्रतिभा सक्सेना
बहुत दिन हो गए
नदिया बड़ी संयत रही है,
लहर के जाल में सब-कुछ समाए जा रही है .
कहीं कुछ शेष बच जाता, जमा बैठातलों में .
बहुत दिन से न जागा वेग,
मंथर वह रही बस,
प्रवाहित मौन-सी चुपचाप धारा,
समेटे जाल सारे, शान्त जल-तल में समाए .
कहीं बरसा न पानी,
हिम-शिखर पिघला न कोई.
समेटे क्यों नहीं पथ के विरोधों को
उमड़ने दो, बहुत दिन हो गए हैं.
सभी कुछ छोड़ बढ़ जाए
कहीं आगे-
कगारें तोड़ कर लहरें समेंटें सब, करें प्लावित!
बहुत दिन हो गए,
सब कुछ देखते- रहते,
बहुत दिन हो गए, यों एक सा बहते,
कहीं जो बाढ़ पानी में उमड़ आए .
नदी को बाँधना मत,
रोकना मत.
शाप है जल का
बहुत कुछ तोड़ जाएगा!
सभी कुछ टूट बिखरे
कुछ न छोड़ेगा ..बहा देगा!
तभी फिर देखना
तट-बंध सारे तोड़ते ढहते,
कि हाहाकार के स्वर वेग में बहते,
लगे प्रतिबंध सारे मोड़ते अपनी तरह
बस एक झटके से,
कगारों के बिना बढती नदी के वेग को चढते,
प्रलय का रूप धरने से कहो फिर कौन टोकेगा?
किसीमें दम कि चढ़ते पानियों का वेग रोकेगा.
किसी में दम उफनती बाढ़ का आवेग रोकेगा?.
बहुत दिन हो गए
चुपचाप है, बहती हुई भी शान्त संयत सी,
कि गहरी घूर्णियों में घट रहा क्या कौन जानेगा!
बहुत दिन हो गए ये तट नहीं भीगे.
लहर कोई बहा दे रेत के डूहे,
बराबर कर सतह इकसार कर डाले,
तलों में जमी तलछट
फिर निकल कर भूमि पर छाए,
जिन्हें कर चूर बिखराया विरोधों को,
सभी कुछ छोड़ बढ़ जाए,
कि वर्जित सीढ़ियाँ चढ़ते, ढहाते पुल
बढ़ी आगे चली जाए.
कि पानी, ढूँढ लेता राह अपनी
तोड़ बाधाएँ .
नदी के पाट मत देखो,
नदी के घाट मत रोको.
बहेगी मुक्त हो, प्रतिबंध तोड़ेगी,
प्रवाहों मे बहाती हरहराती, कुछ न छोड़ेगी .
अगर फिर तुल गई,
रुख धार मोड़ेगी.
युगों के बाद उन रीते कछारों को कभी देखो,
कभी नदिया रहे,
गहरे कगारों को जभी देखो-
किसी अन्याय का प्रतिफल समझ लेना,
नदी को दोष मत देना.
अभी तो शान्त बहने दो,
तरल-जल स्वच्छ रहने हो.
अनादर और मनमानी नहीं सह पायगी नदिया,
अगर समझो, इशारों में बहुत कह जायगी नदिया .
समुन्दर की तरफ हर राह नदिया की,
रुकेगी क्यों ?
बनाती रास्ता बढ़ जायगी नदिया.
बहुत दिन हो गए