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अखरावट / पृष्ठ 1 / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: अखरावट / मलिक मोहम्मद जायसी


दोहा

गगन हुता नहिं महि हुती, चंद नहिं सूर ।
ऐसइ अंधकूप महँ रचा मुहम्मद नूर ॥

सोरठा

सांई केरा नावँ हिया पूर, काया भरी ।
मुहमद रहा न ठाँव, दूसर कोइ न समाइ अब ॥

आदिहु ते जो आदि गोसाईं । जेइ सब खेल रचा दुनियाईं ॥
जस खेलेसि तस जाइ न कहा । चौदह भुवन पूरि सब रहा ॥
एक अकेल, न दूसर जाती । उपजे सहस अठारह भाँती ॥
जौ वै आनि जोति निरमई । दीन्हेसि ज्ञान, समुझि मोहिं भई ॥
औ उन्ह आनि बार मुख खोला । भइ मुख जीभ बोल मैं बोला ॥
वै सब किछु, करता किछु नाहीं । जैसे चलै मेघ परछाहीं ॥
परगट गुपुत बिचारि सो बूझा । सो तजि दूसर और न सूझा ॥

दोहा

कहौं सो ज्ञान ककहरा सब आखर महँ लेखि ।
पंडित पढ अखरावटी , टूटा जोरेहु देखी ॥

सोरठा

हुता जो सुन्न-म-सुन्न, नावँ ना सुर सबद ।
तहाँ पाप नहिं पुन्न , मुहमद आपुहि आपु महँ ॥1॥

आपु अलख पहिले हुत जहाँ । नावँ न ठावँ न मूरति तहाँ ॥
पूर पुरान, पाप नहिं पुन्नू । गुपुत,, तें गुपुत, सुन्न तें सुन्नू ॥
अलख अकेल, सबद नहिं भाँती । सूरूज, चाँद; दिवस नहिं राती ॥
आखर, सुर, नहिं बोल, अकारा । अकथ कथा का कहौं बिचारा ॥
किछु कहिए तौ किछु नहिं आखौं । पै किछु मुहँ महँ, किछु हिय राखौं ॥
बिना उरेह अरंभ बखाना । हुता आपु महँ आपु समाना ॥
आस न, बास न, मानुष अँडा । भए चौखँड जो ऐस पखँडा ॥

दोहा

सरग न,धरति न खंभमय, बरम्ह न बिसुन महेस ।
बजर-बीज बीरौ अस , ओहि रंग, न भेस ॥

सोरठा

तब भा पुनि अंकूर, सिरजा दीपक निरमला ।
रचा मुम्मद नूर, जगत रहा उजियार होई ॥2॥

ऐस जो ठाकुर किय एक दाऊँ । पहिले रचा मुम्मद-नाऊँ ॥
तेहि कै प्रीति बीज अस जामा । भए दुइ बिरिछ सेत औ सामा ॥
होतै बिरवा भए दुइ पाता । पिता सरग औं धरती माता ॥
सूरूज, चाँद दिवस औ राती । एकहि दूसर भएउ सँघाती ॥
चलि सो लिखनी भइ दुइ फारा । बिरिछ एक उपनी दुइ डारा ॥
भेंटेन्हि जाइ पुन्नि औ पापू । दुख औ सुख, आनंद संतापू ॥
औ तब भए नरक बैकँठू । भल औ मंद, साँच औ झूठू ॥

दोहा

नूर मुहम्मद देखि तब भा हुलास मन सोइ ।
पुनि इबलीस सँचारेउ, डरत रहै सब कोइ ॥

सोरठा

हुता जो अकहि संग, हौं तुम्ह काहे बीछुरा ?
अब जिउ उठै तरंग, मुहमद कहा न जाइ किछु ॥3॥

जौ उतपति उपराजै चहा । आपनि प्रभुता आपु सौं कहा ॥
रहा जो एक जल गुपुत समुंदा । बरसा सहस अठारह बुँदा ॥
सोई अंस घटै घट मेला । ओ सोइ बरन बरन होइ खेला ॥
भए आपु औ कहा गोसाईं । सिर नावहु सगरिउ दुनियाईं ॥
आने फूल भाँति बहु फूले । बास बेधि कौतुक सब भूले ॥
जिया जंतु सब अस्तुति कीन्हा । भा संतोष सबै मिलि चीन्हा ॥
तुम करता बड सिरजन-हारा । हरता धरता सब संसारा ॥

दोहा

भरा भँडार गुपुत तहँ, जहाँ छाँह नहिं धूप ।
पुनि अनबन परकार सौं खेला परगट रूप ॥

सोरठा

परै प्रेम के झेल, पिउ सहुँ धनि मुख सो करै ।
जो सिर सेंती खेल, मुहमद खेल सो प्रेम-रस ॥4॥

एक चाक सब पिंडा चढे । भाँति भाँति के भाँडा गढे ॥
जबहीं जगत किएउ सब साजा । आदि चहेउ आदम उपराजा ॥
पहिलेइ रचे चारि अढवायक । भए सब अढवैयन के नायक ॥
भइ आयसु चारिहु के नाऊँ । चारि वस्तु मेरवहु एक ठाऊँ॥
तिन्ह चारिहु कै मँदिर सँवारा । पाँच भूत तेहिह महँ पैसारा ॥
आपु आपु महँ अरुझी माया । ऐस न जानै दहुँ केहि काया ॥
नव द्वारा राखे मँझियारा । दसवँ मूँदि कै दिएउ केवारा ॥

दोहा

रकत माँसु भरि, पूरि हिय, पाँच भूत कै संग ।
प्रेम-देस तेहि ऊपर बाज रूप औ रंग ॥

सोरठा

रहेउ न दुइ महँ बीचु , बालक जैसे गरभ महँ ।
जग लेइ आई मीचु, मुहमद रोएउ बिछुरि कै ॥5॥

उहँईं कीन्हेउ पिंड उरेहा । भइ सँजूत आदम कै देहा ॥
भइ आयसु, `यह जग भा दूजा । सब मिलि नवहु, करहु एहि पूजा ॥
परगट सुना सबद, सिर नावा ॥ नारद कहँ बिधि गुपुत देखावा ॥
तू सेवक है मोर निनारा । दसई पँवरि होसि रखवारा ॥
भई आयसु, जब वह सुनि पावा । उठा गरब कै सीस नवावा ॥
धरिमिहि धरि पापी जेइ कीन्हा । लाइ संग आदम के दीन्हा ॥
उठि नारद जिउ आइ सँचारा । आइ छींक, उठि दीन्ह केवारा ॥

दोहा

आदम हौवा कहँ सृजा, लेइ घाला कबिलास ।
पुनि तहँवाँ तें काढा, नारद के बिसवास ॥

सोरठा

आदि किएउ आदेश, सुन्नहिं तें अस्थूल भए ।
आपु करै सब भेस मुहमद चादर-ओट जेउँ ॥6॥

का-करतार चहिय अस कीन्हा ? आपन दोष आन सिर दीन्हा ॥
खाएनि गोहूँ कुमति भुलाने । परे आइ जग महँ, पछिताने ॥
छोडि जमाल-जलालहि रोवा । कौन ठाँव तें दैउ बिछोवा ॥
अंधकूप सगरउँ संसारू । कहाँ सो पुरुष, कहाँ मेहरारू ?॥
रैनि छ मास तैसि झरि लाई । रोइ रोइ आँसू नदी बहाई ।
पुनि माया करता कहँ भई । भा भिनसार, रैनि हटि गई ॥
सूरुज उए, कँवल-दल फूले । दवौ मिले पंथ कर भूले ॥

दोहा

तिन्ह संतति उपराजा भाँतिहि भाँति कुलीन ।
हिंदू तुरुक दुवौ भए अपने अपने दीन ॥

सोरठा

बुंदहि समुद समान, यह अचरज कासौं कहौं ?
जो हेरा सो हेरान, मुहमद आपुहि आपु महँ ॥7॥

खा-खेलार जस है दुइ करा । उहै रूप आदम अवतारा ॥
दुहूँ भाँति तस सिरजा काया । भए दुइ हाथ, भए दुइ पाया ॥
भए दुइ नयन स्रवन दुइ भाँती । भए दुइ अधर, दसन दुइ पाँती ॥
माथ सरग, धर धरती भएऊ । मिलि तिन्ह जग दूसर होइ गएऊ ॥
माटी माँसु, रकत भा लीरू । नसै नदी, हिय समुद गंभीरू ॥
रीढ सुमेरु कीन्ह तेहि केरा । हाड पहार जुरे चहुँ फेरा ॥
बार बिरिछ, रोवाँ खर जामा । सूत सूत निसरे तन चामा ॥

दोहा

सातौ दीप, नवौ खँड, आठौ दिसा जो आहिं ।
जो बरम्हंड सो पिंड है, हेरत अंत न जाहिं ॥

सोरठा

आगि, बाउ, जल, धूरि चारि मेरइ भाँडा गढा ।
आपु रहा भरि पूरि मुहमद आपुहिं आपु महँ ॥8॥

गा-गौरहु अब सुनहु गियानी । कहौं ग्यान संसार लखानी ॥
नासिक पुल सरात पथ चला । तेहि कर भौहैं हैं दुइ पला ॥
चाँद सुरुज दूनौ सुर चलहीं । सेत लिलार नखत झलमलहीं ॥
जागत दिन -निसि सोवत माँझा । हरष भोर, बिसमय होइ साँझा ॥
सुख बैकुंठ भुगुति औ भोगू । दुख है नरक, जो उपजै रोगू ॥
बरखा रुदन, गरज अति कोहू । बिजुरी हँसी हिवंचल छोहू ॥
घरी पहर बेहर हर साँसा । बीतै छऔ ऋतु, बारह मासा ॥

दोहा

जुगजुग बीतै पलहि पल, अवधि घटति निति जाइ ।
मीचु नियर जब आवै, जानहुँ परलय आइ ॥

सोरठा

जेहि घर ठग हैं पाँच, नवौ बार चहुँदिसि फिरिहिं ।
सो घर केहि मिस बाँच ? मुहमद जौ निसि जागिए ॥9॥

घा-घट जगत बराबर जाना । जेहि महँ धरती सरग समाना ॥
माथ ऊँच मक्का बन ठाऊँ । हिया मदीना नबी क नाऊँ
सरवन ,आँखि, नाक, मुख चारी । चारिहु सेवक लेहु बिचारी ॥
भाव चारि फिरिस्ते जानहु । भावै चारि यार पहिचानहुँ ॥
भावै चारिहु मुरसिद कहऊ । भावै चारि किताबैं पढऊ ॥
भावै चारि इमाम जे आगे । भावै चारि खंभ जे लागे ॥
भाव चारिहु जुग मति-पूरी । भावै आगि, वाउ,जल धूरी ॥

दोहा

नाभि-कँवल तर नारद लिए पाँच कोटवार ।
नवौ दुवारि फिरै निति दसईं कर रखवार ॥

सोरठा

पवनहु तें मन चाँड, मन तें आसु उतावला ।
कतहुँ भेंड न डाँड, मुहमद बहुँ बिस्तार सो ॥10॥

ना-नारद तस पाहरु काया । चारा मेलि फाँद जग माया ॥
नाद, बेद औभूत सँचारा । सब अरुझाइ रहा संसारा ॥
आपु निपट निरमल होइ रहा । एकहु बार जाइ नहिं गहा ॥
जस चौदह खंड तैस सरीरा । जहँवैं दुख है तहँवैं पीरा ॥
जौन देस महँ सँवरे जहवाँ । तौन देस सो जानहु तहँवा ॥
देखहु मन हिरदय बसि रहा । खन महँ जाइ जहाँ कोइ चहा ॥
सोवत अंत अंत महँ डोलै । जब बोलै तब घट महँ बोलै ॥