अभी ख़ामोश हैं शोलों का अंदाज़ा / मुज़फ़्फ़र 'रज़्मी'
अभी ख़ामोश हैं शोलों का अंदाज़ा नहीं होता
मेरी बस्ती में हँगामों का अंदाज़ा नहीं होता
जिधर महसूस हो ख़ुश-बू उसी जानिब बढ़े जाओ
अँधेरी रात में रस्तों का अंदाज़ा नहीं होता
जो सदियों की कसक ले कर गुज़र जाते हैं दुनिया से
मोअर्रिख़ को भी उन लम्हों का अंदाज़ा नहीं होता
ये रह-बर हैं के रह-ज़न हैं मसीहा हैं के क़ातिल हैं
हमें अपने नुमाइंदों का अंदाज़ा नहीं होता
नज़र हो लाख गहरी और बसीरत-आशना फिर भी
नक़ाबों में कभी चेहरों का अंदाज़ा नहीं होता
ज़मीं पर आओ फिर देखो हमारी अहमियत क्या है
बुलंदी से कभी ज़र्रों का अंदाज़ा नहीं होता
वफ़ाओं के तसलसुल से भी अक्सर टूट जाते हैं
मोहब्बत के हसीं रिश्तों का अंदाज़ा नहीं होता
उतर जाते हैं रूह ओ दिल में कितनी वुसअतें ले कर
ग़ज़ल के दिल-रुबा लहजों का अंदाज़ा नहीं होता
सलीक़े से सजाना आईनों को वरना ऐ ‘रज़्मी’
ग़लत रुख़ हो तो फिर चेहरों का अंदाज़ा नहीं होता