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ख़ैर औरों ने भी चाहा तो है तुझ सा होना / अहमद मुश्ताक़

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ख़ैर औरों ने भी चाहा तो है तुझ सा होना
ये अलग बात के मुमकिन नहीं ऐसा होना

देखता और न ठहरता तो कोई बात भी थी
जिस ने देखा ही नही उस से ख़फ़ा क्या होना

तुझ से दूरी में भी ख़ुश रहता हूँ पहले की तरह
बस किसी वक़्त बुरा लगता है तन्हा होना

यूँ मेरी याद में महफ़ूज़ हैं तेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल
जिस तरह दिल में किसी शय की तमन्ना होना

ज़िंदगी मारक-ए-रूह-ओ-बदन है मुश्ताक़
इश्क़ के साथ ज़रूरी है हवस का होना