अज़ाब-ए-ख़्वाहिश-ए-तामीर ले के उतरा है
वो मेरे ख़्वाब में ताबीर ले के उतरा है
मैं ख़ाली हाथ हूँ और देखता हूँ मेरे ख़िलाफ़
मेरा अदू मेरी शमशीर ले के उतरा है
सफ़र के बोझ तले ख़ुद को खींचता हुआ दिन
मेरी हथेली पे ताख़ीर ले के उतरा है
ये कैसा दश्त है जिस की जड़ों का सन्नाटा
तमाम शहर पे ताज़ीर ले के उतरा है
लहू जमी हुई आँखों में वक़्त का पंछी
जो खो गई थी वो तस्वीर ले के उतरा है