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फिर तुमने क्यों शूल बिछाए? / महादेवी वर्मा
Kavita Kosh से
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फिर तुमने क्यों शूल बिछाए?
इन तलवों में गति-परमिल है,
झलकों में जीवन का जल है,
इनसे मिल काँटे उड़ने को रोये झरने को मुसकाये!
ज्वाला के बादल ने घिर नित,
बरसाये अभिशाप अपरिमित,
वरदानों में पुलके वे जब इस गीले अंचल में आये!
मरु में रच प्यासों की वेला,
छोड़ा कोमल प्राण अकेला,
पर ज्वारों की तरणी ले ममता के शत सागर लहराये!
घेरे लोचन बाँधे स्पन्दन,
रोमों से उलझाये बन्धन,
लघु तृण से तारों तक बिखरी ये साँसें तुम बाँध न पाये!
देता रहा क्षितिज पहरा-सा,
तम फैला अन्तर गहरा-सा,
पर मैंने युग-युग से खोये सब सपने इस पार बुलाये!
मेरा आहत प्राण न देखो,
टूटा स्वर सन्धान न लेखो,
लय ने बन-बन दीप जलाये मिट-मिट कर जलजात खिलाये!
फिर तुमने क्यों शूल बिछाए?