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आन्ना अख़्मातवा के लिए-3 / ओसिप मंदेलश्ताम
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विकृत हैं चेहरे की रेखाएँ
बूढ़ों की-सी है मुस्कान
सचमुच में यह नर्म-चिरैया
भारी पीड़ा से हलकान
इस कविता पर टिप्पणी करते हुए आन्ना अख़मातवा ने अपने संस्मरणों में लिखा-- "मैं तब मन्देलश्ताम के साथ स्टेशन पर फ़ोन करने गई थी । वे पारदर्शी काँच के पीछे से केबिन में मुझे फ़ोन करते हुए देख रहे थे । जब मैं केबिन से बाहर निकली तो उन्होंने मुझे ये चार पंक्तियाँ सुनाईं ।"
(रचनाकाल : 1915)