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हमारे शह्र में हर अजनबी, इक हमजबां चाहे / पवन कुमार
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हमारे शह्र में हर अजनबी, इक हमजबां चाहे
मगर कुछ है जो बाशिन्दा यहाँ का दरमियां चाहे
उम्मीदें मंज़िलों की अब तो हमको ज़र्द लगती हैं
ख़बर है इस सफर में कारवाँ भी सायबां चाहे
करा दो आशना सच से कि जोखिम है बहुत इसमें
ज़मीं कदमों से गायब है मगर वो आस्मां चाहे
हम उसकी जिन्दगी से इस कदर मानूस हैं या रब
किताबे-ज़िंदगी उसकी हमारी दास्तां चाहे
बहुत बेख़ौफ होकर फूल जो सहरा में उगता था
बदलते वक्त में वो भी ख़ुदा से बागवां चाहे
सायबां = छाया, आशना = परिचित, मानूस = परिचित/हिले-मिले, सहरा = खाली मैदान,
बागवां = माली