भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर / सरूर
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:02, 26 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आले अहमद 'सरूर' }} {{KKCatGhazal}} <poem> वो जिएँ क...' के साथ नया पन्ना बनाया)
वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
दश्त में ख़ाक उड़ाते रहे घर भी न मिला
ख़स ओ ख़ाशाक से निस्बत थी तो होना था यही
ढूँडने निकले थे शोले को शरर भी न मिला
न पुरानों से निभी और न नए साथ चले
दिल उधर भी न मिला और इधर भी न मिला
धूप सी धूप में इक उम्र कटी है अपनी
दश्त ऐसा के जहाँ कोई शजर भी न मिला
कोई दोनों में कहीं रब्त निहाँ है शायद
बुत-कदा छूटा तो अल्लाह का घर भी न मिला
हाथ उट्ठे थे क़दम फिर भी बढ़ाया न गया
क्या तअज्जुब जो दुआओं में असर भी न मिला
बज़्म की बज़्म हुई रात के जादू का शिकार
कोई दिल-दादा-ए-अफ़सून-ए-सहर भी न मिला.