भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहने को इंसान बहुत हैं / पवन कुमार
Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:28, 27 अप्रैल 2013 का अवतरण
कहने को इंसान बहुत हैं
पर इनमें बेजान बहुत हैं
मैं इक सादा वरक अकेला
बंधने को जुजदान बहुत है
कच्चे रंग सँभालें ख़ुद को
बारिश के इम्कान बहुत हैं
दरियादिल है शायद मालिक
इस घर में मेहमान बहुत हैं
काश इनमें कुछ फूल भी होते
कमरे में गुलदान बहुत हैं
काश कि कोई जह्न भी चमके
जिस्म यहाँ जीशान बहुत हैं
इश्क ही नेमत इश्क खुदाई
पर इसमें नुकसान बहुत हैं
वरक = पृष्ठ, जुजदान = पुस्तक बांधने का कपड़ा, इम्कान = सम्भावना, जीशान = चमक