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प्रभु-प्रताप / ‘हरिऔध’

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चाँद औ सूरज गगन में घूमते हैं रात दिन।
तेज औ तम से, दिशा होती है उजली औ मलिन।
वायु बहती है, घटा उठती है, जलती है अगिन।
फूल होता है अचानक वज्र से बढ़कर कठिन।
जिस अलौकिक देव के अनुकूल केलि-कलाप बल।
वह करे सब काल में संसार का मंगल सकल।1।

क्या नहीं है हाथ में वह नाथ क्या करता नहीं।
चाहता जो है, उसे करते कभी डरता नहीं।
सुख मिला उसको न, दुख जिसका कि वह हरता नहीं।
कौन उसको भर सके जिसको कि वह भरता नहीं।
है अछूती नीति, करतूतें निराली हैं सभी।
भेद का उसके पता कोई नहीं पाता कभी।2।

है बहुत सुन्दर बसे कितने नगर देता उजाड़।
है मिलाता घूल में कितने बड़े ऊँचे-पहाड़।
एक झटके में करोड़ों पेड़ लेता है उखाड़।
एक पल में है सकल ब्रह्माण्ड को सकता बिगाड़।
काँपते सब देखते आतंक से हैं रात दिन।
मोम करता है उसे, है जो कि पत्थर से कठिन।3।

देखते हैं राज पाकर हम जिसे करते बिहार।
माँगता फिरता रहा कल भीख वह कर को पसार।
एक टुकड़े के लिए जो घूमता था द्वार द्वार।
आज धरती है कँपाती उसके धौंसे की धुकार।
नित्य ऐसी सैकड़ों लीला किया करता है वह।
रंक करता है कभी सिर पर मुकुट धारता है वह।4।

जड़ जमा कितने उजड़तों को बसाता है वही।
बात रख कितने बिगड़तों को बनाता है वही।
गिर गयों को कर पकड़ करके उठाता है वही।
भूलतों को पथ बहुत सीधा बताता है वही।
इस धरा पर सुन सका कोई नहीं जिसकी कही।
उस दुखी की सब व्यथा सुनता समझता है वही।5।

डाल सकता शीश पर जिसके पिता छाया नहीं।
गोद माता की खुली जिसके लिए पाया नहीं।
है पसीजी देखकर जिसकी व्यथा जाया नहीं।
काम आती दिखती जिसके लिए काया नहीं।
बाँह ऐसे दीन की है प्यार से गहता वही।
सब जगह सब काल उसके साथ है रहता वही।6।

वह अँधेरी रात जिसमें है घिरी काली घटा।
वह बिकट जंगल, जहाँ पर शेर रहता है डटा।
वह महा मरघट, पिशाचों का जहाँ है जम घटा।
वह भयंकर ठाम जो है लोथ से बिलकुल पटा।
मत डरो ये कुछ किसी का कर कभी सकते नहीं।
क्या सकल संसार पाता है पड़ा सोता कहीं।7।

जिस महा मरुभूमि से कढ़ती सदा है लू-लपट।
वारि की धारा मधुर रहती उसी के है निकट।
जिस विशद जल-राशि का है दूर तक मिलता न तट।
है उसी के बीच हो जाता धरातल भी प्रगट।
वह कृपा ऐसी किया करता है कितनी ही सदा।
लाभ जिससे हैं उठाते सैकड़ों जन सर्वदा।8।

जिस अँधेरे को नहीं करता कभी सूरज शमन।
उस अँधेरे को सदा करता है वह पल में दमन।
भूल करके भी किसी का है जहाँ जाता न मन।
वह बिना आयास के करता वहाँ भी है गमन।
देवतों के ध्यान में भी जो नहीं आता कभी।
उस खिलाड़ी के लिए हस्तामलक है वह सभी।9।

जगमगाती व्योम मण्डल की विविधा तारावली।
फूल फल सब रंग के खिलती हुई सुन्दर कली।
सब तरह के पेड़ उनकी पत्तियाँ साँचे ढली।
रंग बिरंगे पंख की चिड़ियाँ प्रकृति हाथों पलीं।
आँख वाले के हृदय में हैं बिठा देती यही।
इन अनूठे विश्व-चित्र का चितेरा है वही।10।

देख जो पाया 'अरोराबोरिएलिस' का समा।
रंग जिसकी आँख में है मेघमाला का जमा।
जो समझ ले व्यूह तारों का अधर में है थमा।
जो लखे सब कुछ लिये है घूमती सारी क्षमा।
कुछ लगाता है वही करतूत का उसकी पता।
भाव कुछ उसके गुणों का है वही सकता बता।11।

है कहीं लाखों करोड़ों कोस में जल ही भरा।
है करोड़ों मील में फैली कहीं सूखी धारा।
है कहीं पर्वत जमाये दूर तक अपना परा।
दिखाई पड़ता है कहीं मैदान कोसों तक हरा।
बह रहीं नदियाँ कहीं, हैं गिर रहे झरने कहीं।
किस जगह उसकी हमें महिमा दिखती है नहीं।12।

जी लगाकर आँख की देखो क्रिया कौतुक भरी।
इस कलेजे की बनावट की लखो जादूगरी।
देख कर मेजा बिचारो फिर विमल बाजीगरी।
इस तरह सब देह की सोचो सरस कारीगरी।
फिर बता दो यह हमें संसार के मानव सकल।
इस जगत में है किसी की तूलिका इतनी प्रबल।13।

जब जनमने का नहीं था नाम भी हमने लिया।
था तभी तैयार उसने दूधा का कलसा किया।
प्यार की बहु आपदायें, बुद्धि बल वैभव दिया।
की भलाई की न जाने और भी कितनी क्रिया।
तीनपन बीते मगर तब भी तनिक चेते नहीं।
हैं पतित ऐसे कि उसका नाम तक लेते नहीं।14।

हे प्रभो! है भेद तेरा वेद भी पाता नहीं।
शेष, शिव, सनकादि को भी अन्त दिखलाता नहीं।
क्या अजब है जो हमें गाने सुयश आता नहीं।
व्योम तल पर चींटियों का जी कभी जाता नहीं।
मन मनाने के लिए जो कुछ ढिठाई की गयी।
कीजिए उसको क्षमा, है बात जो अनुचित हुई।15।