भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेरी सोच मुझे किस रुतबे पर ले आई / 'मुज़फ्फ़र' वारसी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:33, 16 मई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='मुज़फ्फ़र' वारसी }} {{KKCatGhazal}} <poem> मेरी ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरी सोच मुझे किस रुतबे पर ले आई
दाइर-ए-हस्ती इक नुक़्ते पर ले आई

जब दुनिया को मैं ने कोर-ए-नज़र ठहराया
मेरी आँखें अपने चेहरे पर ले आई

मैं तो इक सीधी पगडंडी पर निकला था
पगडंडी मुझ को चौराहे पर ले आई

यूँ महसूस हुआ अपनी गहराई में जा कर
जैसे कोई मौज किनारे पर ले आई

सहरा में भी दीवारें सी फ़ाँद रहा हूँ
बीनाई किस अँधे रस्ते पर ले आई

मैं ने नोच के फेंकीं जो शिकनें चादर से
वो सब शिकनें दुनिया माथे पर ले आई

काहकशाँ के ख़्वाब 'मुज़फ़्फ़र' देख रहा था
और बेदारी रेत के टीले पर ले आई