भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साँस लेना भी कैसी आदत है / गुलज़ार
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:25, 2 जून 2013 का अवतरण
साँस लेना भी कैसी आदत है
जीये जाना भी क्या रवायत है
कोई आहट नहीं बदन में कहीं
कोई साया नहीं है आँखों में
पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं
इक सफ़र है जो बहता रहता है
कितने बरसों से, कितनी सदियों से
जिये जाते हैं, जिये जाते हैं
आदतें भी अजीब होती हैं