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सुमन-संगीत / रामचंद्र शुक्ल

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आओ, हे भ्रमर! कमनीय कृष्ण-काति धर!!
देखो, जिस रूप, जिस रंग में खिले हैं हम।
आकुल किसी के अनुराग में अवनि पर;
इसी रूप-रंग में खिला हैं कोई और कहीं,
जाओ वहीं, मधुप! सुनाओ गूँज पल भर।
रंग में उसी के चूर धूल हो हृदय यह,
धीरे-धीरे उड़ा चला जाता हैं बिखर कर;
जाओ पहुँचाओ पास प्रिय के हमारे अब,
अधिक नहीं तो एक कण मित्र मधुकर ।।27

गर्भ में धरित्री अपने ही कुछ काल जिन्हें,
धर कर, गोद में उठाती फिर चाव से;
औरस सगे हैं वे ही उसके जो हरे-हरे,
खडे लहराते पले मृदु क्षीर-स्राव से।
भरती हैं जननी प्रथम इनको ही निज,
भरे हुए पालन औ रंजन के भाव से;
पालते यही हैं, बहराते भी यही हैं फिर,
सारी सृष्टि उसी प्राप्त शक्ति के प्रभाव से ।।28

तप्त अनुराग जब उर में वसुंधरा का,
उठता हैं लहरें सकंप लहकारता;
देखता हैं उसे ध्वंस ज्वाला के स्वरूप में तू,
प्यार की ललक नहीं उसको विचारता।
निज खंड-अनुराग से न मेल खाता देख,
नर! तू विभीषिका हैं उसको पुकारता;
दूर कर पालन की शक्ति की शिथिलता को,
वही नव जीवन से भरी फूँक मारता ।।29

उसी अनुराग के हैं शीतल विभास सब,
कोमल अरुण किशलय क्या कुसुमदल;
नीरव संदेश कहो, प्रेम कहो, रूप कहो,
सब कुछ कहो इन्हें सच्चे रंग ही में ढल।
रंग कैसे रंग पर उड़-उड़ झुकते हैं,
पवन में पंख बने तितली के चोखे चल;
यों ही जब रूप मिलें बाहर के भीतर की
भावना से, जानो तब कविता का सत्यपल ।।30

गया उसी देवल के पास से हैं ग्राम-पंथ,
श्वेत धारियों में कई घास को विभक्त कर;
थूहरों से सटे हुए पेड़ और झाड़ हरे,
गोरज से धूमले जो खडे हैं किनारे पर।
उन्हें कई गायें पैर अगले चढ़ाए हुए,
कंठ को उठाए चुपचाप ही रही हैं चर;
जा रही हैं घाट ओर ग्राम वनिताएँ कई,
लौटती हैं कई एक घट औ कलश भर ।।31

इतने में बकते औ झकते से बूढे बूढ़े,
भगत जी एक इसी ओर बढे आते हैं;
पीछे-पीछे लगे कुछ बालक चपल उन्हें,
'सीताराम-सीताराम' कहके चिढ़ाते हैं।
चिढ़ने से उनके चिढ़ाने की चहक और,
दल को वे अपने बढ़ाते चले जाते हैं;
कई एक कुक्कुर भी मुँह को उठाए साथ,
लगे-लगे कंठस्वर अपना मिलाते हैं ।।32

कई ललनाएँ औ कुमारियाँ कुतूहल से,
ठमक गई हैं उसी पथ के किनारे पर;
मंदिर के सुथरे चबूतरे के पास-बढ़,
सिर से उतार घट कलश हैं देती धर।
हावमयी लीला यह देख के भगत जी की,
भीतर ही भीतर विनोद से रही हैं भर;
मुख से तो कहती हैं 'कैसे दुष्ट बालक हैं',
लोचनों से और ही संकेत वे रही हैं कर ।।33
सूहे वास बीच से हैं फूटती गोराई कहीं,
पीतपट बीच लुकी साँवली लुनाई हैं;
भोले भले मुख में कपोल बिकसाती हुई,
मंद मृदु हास-रेखा दे रही दिखाई हैं।
चंचल दृगों की यह चटक निराली ऐसी,
जनपद छोड़ और जाती कहाँ पाई हैं;
विविध-विकास भरी लहलही मची बीच,
घटित प्रफुल्ल द्युति यह सुघड़ाई हैं ।।34

सामने हमारे जब आया वह दल तब,
भगत के पास जाके एक बोला राधेश्याम;
कृपा दृष्टि अभी पूरी होने भी न पाई थी कि,
चट फिर बोल उठा सीताराम-सीताराम
लाठी तान सिर को झुलाते हुए झुक पडे ,
गालियों के साथ झोंक दादा औ पिता के नाम;
कंधे से दुपट्टा छूट पड़ा लहराता बढे,
कुत्तो जो लपक, लिया लोगों ने झपट थाम ।।35

अंत में 'अरुण जी' की बढ़ती उतावली को,
देख उठ खडे हुए हम लोग जाने को;
इतने में भद्र जन एक उसी ग्राम के यों,
बोल उठे, आप लोग फिर कहाँ आने को?
होगा न विलंब, चले चलिए हमारे द्वार,
आधी घड़ी बैठिए न श्रम ही मिटाने को;
सब लोग साथ चले; केवल 'अरुण' लगे,
मुँह को बनाने, किंतु वह भी दिखाने को ।।36


घुसते हैं वीथियों में ग्राम के तो कहीं-कहीं
गोमय के बीच बँधे गाय-बैल पाते हैं;
नोंक-झोंक बातों की भिड़ाते हुए नंदन जी,
गडे ख़ूँटे से जा एक टकराते हैं।
भड़क के बैल एक बंधन तुड़ाता हुआ,
भागता हैं; पीछे कुछ लोग दौड़ जाते हैं;
धीरे-धीरे यों ही एक द्वार के समक्ष हम,
चिकनी चौकोर स्वच्छ भूमि पर आते हैं ।।37

कोल्हू एक बीच में गड़ा हैं; जाट घूम-घूम,
बोलती हैं मड़ मड़ लाट सी उठी वहीं;
पड़ गईं खाटें, जमी मंडली हमारी चट,
चर चर गायें लौट थानों पर आ रहीं।
धीरे धीरे लाए गए घडे ऌक्षु-रस भरे,
धरे गये मटके भी दूध के कहीं कहीं;
पीने को बिठा के हमें देने लगे ढाल-ढाल,
मानते हमारी कही एक भी 'नहीं' नहीं ।।38

ग्राम-ग्राम द्वार पर अतिथि-समागम का,
गौरव सदा से इसी भाँति चला आता हैं;
नगरों के ऐसा वहाँ देख कोई आया गया,
दूर ही से कहीं कोई मुँह न चुराता हैं।
बैठे हुए मुदित 'प्रमोद जी' को बार बार,
देख देख एक कुछ सोचता सा जाता हैं;
नाम धाम पूछ फिर धीरे से खिसक गया,
बोले हम देखो! यह कौन रंग लाता हैं ।।39

कानाफूसी करती नवेली कई देख पड़ीं,
मंद मंद हँसी न दबाई दब पाती हैं;
ज्यों ही बातचीत में हमारा ध्यान बँटा,
त्यों ही पास ही हमारे झनकार कुछ आती हैं।
साथ ही उसी के चट ऊपर हमारे छूट,
झोंकभरी पीत-रंग-धारा ढल जाती हैं;
उठ पडे रंजित वसन झटकार हम,
हास की तरंग उठ रस में डुबाती हैं ।।40

पास ही श्वसुर-ग्राम 'भंडशर' नाम यहीं,
कहीं हैं प्रमोद जी का, जानते थे हम यह;
पूछने से एक ने उठा के हाथ चट उन,
पर्वतों के अंचल की ओर कहा देखो वह
नाता एक ग्राम से जो होता हैं किसी का उसे,
आस पास मानते हैं ममता के साथ कह;
देश के पुराने उस जीवन की धारा अभी,
सूखी नहीं यहाँ, क्षीण होकर रही हैं बह ।।41

पश्चिम दिशा में घने द्रुम-दल-जाल-मध्य,
देख पडे अवकाश लोहित प्रदीप्त अति;
और ओर पत्राराशि-गह्नरों की श्यामता की,
बढ़ गहराई चली; मंद हुई वायु-गति।
खुला रंग धरती का दबता दिखाई दिया,
होने लगी अब तो प्रकाश की प्रकट क्षति;
आकुल विहंग चले वेग से बसेरों पर,
घर फिर चलने की हमने भी ठानी मति ।।42

लीन अभी श्यामता में पेड़ हो न पाए थे कि,
जहाँ तहाँ गए स्वर्ण-आभा से झलक छोर;
टेढ़ी-मेढ़ी धूम्र कृष्ण शैल शीर्ष-रेखा पर,
देख पड़ी झाँकती-सी उठी चंद्रबिंब-कोर।
धीरे धीरे टीले, खपरैल, खेत मेंड़, पथ,
धारा में धवल चोखी चाँदनी उठे बोर;
उठ पड़ी मंडली हमारी एक एक कर,
बढे पाँव साथ-साथ सबके घरों की ओर ।।43

खिली हुई चाँदनी में खेत खात पारकर,
धाम के समीप निज ज्यों ही हम आते हैं;
देखते हैं दल बाँध बालक अनेक घूम,
माता होलिका की जय धूम से मनाते हैं।
काँटे और झाड़ लिए कई एक पास आके,
बोले हम आज कहीं कुछ भी न पाते हैं;
पूरी समवेदना दिखाते हुए सब लोग,
बोले देखो, हम अभी तुमको बताते हैं ।।44

वयस में दूर नहीं बहुत बढ़े थे हम,
क्षण भर मिल गए साथ बाल-दल के;
परम विनोद शील ग्रामपति इसी बीच,
देख पडे, मिले मानो सखा प्रति पल के।
चिड़चिडे बूढे एक 'वंशी महराज' के थी,
द्वार पर खाट पड़ी थोड़ी दूरी चल के;
उँगली हमारी उठी ज्यों ही उस ओर उसे,
बालकों ने लाद लिया, हम हुए हलके ।।45

फागुन की चाँदनी की चहल पहल यह,
चूक से हमारी अब चुकी चली जाती हैं;
प्रकृति के साथ मिले मन की उमंग वह,
झोंके झंझटों के झेल आज ढली जाती हैं।
गौरव की ग्लानि से स्वरूप की हमारी सब,
चारुता भी रुचि को समेट गली जाती हैं;
जीवन की सारी जो प्रफुल्लता हमारी रही,
देखते-ही-देखते हमारे टली जाती हैं ।।46

पर्व और उत्सव-प्रवाह में प्रमोद-कांति,
सारी-मिली-जुली साथ में थी खुली खेलती;
आज वह छिन्न-भिन्न होके कुछ लोगों की ही,
कोठरी में लुकी-छिपी कारागार झेलती।
भद्रता हमारी कोरी भिन्नता का बाना धर,
खिन्नता से बहुतों से दूर हमें ठेलती;
हिल मिल एक में करोड़ों की उमंगें अब,
जीवन में सुख की तरंगें नहीं रेलती ।।47

चढ़ी चली आती देख पच्छिमी सनक सब,
हृदय हमारे आज और भी हैं हारते;
जीवन विधायिनी विभूति जीती-जागती जो,
भूमि के दुलारे निज श्रम से पसारते।
उसे धातु-निगड़ से जकड़ बना के जड़,
पालन-प्रसार की समस्त गति मारते;
सोखते हैं रक्त भर पेट कुछ लोग बैठ,
उनका जो तन के पसीने नित्य गारते ।।48

ऐसे क्रूर कठिन विधान में कहाँ से यह,
मंगल की आभा की झलक रह पावेगी?
नगरों के धातु खंड-राशि जिस घड़ी सब,
ग्राम-गत भूमि झनकार से जुतावेगी।
खोके पत पानी, हार अपनी स्वतंत्राता को,
जनता वहाँ की मजदूर बन जावेगी;
लुच्चे औ लफंगे नई काट के मिलेंगे, फिर,
वहाँ भी पुनीतता न मुँह दिखलावेगी ।।49

जीने हेतु हाथ-पाँव मारना ही जीवन का,
एक-मात्र रूप हम चारों ओर पावेगे;
अवसर आयु में से क्रीड़ा के कटेंगे सब,
बालक भी खेलते न देखने में आवेंगे।
सारी वृत्ति अर्थ से बँधेगी इस भाँति, लोग,
कहीं आँख-कान तक व्यर्थ न लगावेंगे;
ऐसे इस अर्थ के अनर्थ से विभीत होके,
मन के पुनीत भाव सारे भाग जावेंगे ।।50

('माधुरी' अप्रैल, 1927)