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झलक -3 / रामचंद्र शुक्ल

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पकड़-पकड़ पिटी अपनी लकीरों पर,
लाकर खिलाई हुई डालियों के पास में;
डाल के सुखावन जो बैठते हैं सायं-प्रात,
सुखद समीर ही के सेवन की आस में।
कहें वे इसे ही चाहे प्रकृति का प्रेम, और
ढूँढ़ा करें कविता को भोग औ विलास में।
किंतु रसमयी विश्वव्यापिनी कला की भला,
झलक मिलेगी कहाँ ऐसों के प्रयास में? ।।1

रूपों में चराचर के काया का जो भोग मात्रा,
ढूँढ़ते हों कहीं वे तो जृंभित जडे रहें;
बैठे या पसारे पाँव अपने विनोद में या,
तिमिर की गोद में ही नींद में गडे रहें।
तमक दमक-भरे नृत्य से निदाघ के वे,
तेज के झ्रवाते कण दूर ही पडे रहें;
किंतु हम वेग बने, ज्वाला बने, रव बने,
क्यों न आज साथ मिले साज से खडे रहें? ।।2

प्रखर-प्रणय-पूर्ण दृष्टि से प्रभाकर की,
ललक-लपट-भरी भूमि भभराई हैं;
पीवर पवन लोट-लोट धूल-धूसरित,
झपट रहा हैंबड़ी धूम की बधाई हैं।
सूखे तृण-पत्रा लिए कहीं रेणचक्र उठा,
घूर्णित प्रमत्ता देता नाचता दिखाई हैं;
झाड़ औ झपेट झेल झूमते खड़े हैं पेड़,
मर्मर-मिलित हू-हू दे रहा सुनाई हैं ।।3

दौड़ती हैं दृष्टि खुले मृण्मय प्रसार-बीच,
ताप तिलमिली की तरंगों का जहाँ हैं छोर;
निखरे सपाट तपे खेतों पर छाया डाल,
डोलते हमारे डील लेते धर्म-मर्म घोर।
धूल-भरी गोद की उमंग उठ उठ कभी,
छोपती हैं हमें, फिर छोड़ती हैं किसी ओर;
जीवन की ज्वाला से किनारे पडे हुए पिंड,
पिघलेंगे कैसे कुछ विश्व-मर्मता बटोर ।।4

तमक रही हैं जिस तेज से ज्वलंत भूति,
उसी ने हमारे आज पैर भी उभारे हैं;
झंझा बीच फैली झाड़ झपट हमारी देखो,
लुवों की लपक में भभूके ये हमारे हैं।
नाचती उमंग हैं हमारी वात-चक्र बीच,
रक्षण के भाव कहीं छाया में पसारे हैं;
द्रवित दया की क्षीण देखा भी सलिलवती
रखती हैं हरे उन्हें धरे जो किनारे हैं ।।5

धन्य यह सुभृति विभूति हेतु घोर तप,
आशा का मुखरवाद झोंक भरी चढ़ी झक;
पीने की क्षमता प्यास होके उतनी तो बढे,
जितनी से जाय तृप्ति लोक-सुख सीमा तक।
सच्ची रोष ज्वाला यह ऐसी धुवाँधार जगे,
जड़ता के भीतर भी होने लगे धकधक;
रूखा-सूखा गगन हो जाये यह पानी-पानी,
अंकुरित जीवन की छावे हरियाली चक्र ।।6

बढ़ी चली जा रही हैं मंडली हमारी वही,
धुन में हो चूर भरपूर पैर धुनती;
आसपास चौकड़ी न भरते कहीं हैं पैर,
डोलते न पंख, कोई चेंच भी न चुनती।
उभरे किसी ढेले की छाया में बटोही कटी,
लेता हैं विराम, वहीं लूता जाल बुनती;
सिर को निकाल तरु-कोटर से मैना एक,
चुपचाप आहट हमारी बैठ सुनती ।।7

मीठी मटियाली अंतरिक्ष की प्रभा में रमा,
एक हैं अकेला पेड़ ताने हरे पत्राजाल;
जीव धर्म-पालन में अचल खड़ा हैं वह,
आए गए प्राणियों के हेतु घनी छाया डाल।
पीवर गँठीली एंठी जड़ों के समीप बैठी,
करती जुगाली आँख मूँदे एक गाय लाल;
भेद भाव-हीन यह आश्रय पुनीत, यहीं,
बैठ क्यों न काटें हम लोग कुछ क्लांति काल ।।8

देखते हैं श्वान एक धूप में खड़ा हैं आगे,
आश्रय के हेतु जिसे वृक्ष ने बुलाया हैं;
साहस न होता उसे छाया में बढ़ाए पैर,
जहाँ क्रूर आसन मनुष्य ने जमाया हैं।
पूँछ में विनीत वीज्यमान, प्रेम-व्यंजना हैं,
लगी दीन दृष्टि, लटी लोममयी काया हैं;
एक दुतकार को दबाती चुचकारें बढ़ीं,
यहाँ जगी प्रीति, वहाँ भगी भीति छाया हैं ।।9

काया की न छाया यह केवल तुम्हारी द्रुम,
अंतस के मर्म का प्रकाश वह छाया हैं;
भरी हैं इसी में वह स्वर्ग-स्वप्नधारा अभी,
जिसमें न पूरा-पूरा नर बह पाया हैं।
शांतिसार शीतल प्रसार यह छाया धन्य,
प्रीति-सा पसारे इसे कैसी हरी काया हैं;
हे नर! तू प्यारा इस तरु का स्वरूप देख,
देख फिर घोर रूप तूने जो कमाया हैं ।।10

पूँछ को हिलाता चुपचाप वह आया चला,
बैठ गया सारा डील डाल वहीं हार के;
हाँफता हैं खोले मुँह, विरल धवल दंत,
बीच लंबी लाल जीभ बाहर पसार के।
ऊपर को मुँह किए ताकता हैं हमें कभी,
नीचे दबा भाषा हीन भावना के भार के;
"क्रूरता न करें, बड़ी कृपा क्या हमारी यही,
हम तुम दोनों हैं भिखारी एक द्वार के" ।।11

देखते हैं ऊपर तो पत्तियों के बीच कई,
पंखवाले पाहुने भी बैठे मन मारे हैं;
सहचर सारे ये हमारे रहते भी जहाँ,
कुछ सुख पावें पुण्यधाम वे हमारे हैं।
इनके सुखों से सुख अपना हटा के दूर,
जीवन का मूल्य तो समूल हम हारे हैं;
पर ये हमारे, हम इनके बने हैं अभी,
जैसे हम इन्हें वैसे हमको ये प्यारे हैं ।।12

वात-वेग शिथिल हो मंद पड़ जाता जब,
छाती सनसनी घोर प्रकृति-प्रसार में;
रह-रह मारता हैं चोट-सी पवन पर,
पंडुक निचाट पडे बंजर के पार में।
चोखी चाह चातक की मौन चीखी हैं कभी
माती हुई धुन के चढ़ाव में, उतार में;
बोल रे पपीहे! तेरे कंठ में हमारी प्यास,
लोक-याचना हैं तेरी गूँजती पुकार में ।।13

पान-'जलपान' बँधे अपने अंगोछे में से,
'नंदन जी' डालते हैं आगे कुछ श्वान के;
लेता हैं लपककर, ताकता हैं बार-बार,
प्राप्ति हेतु और फल दया के विधान के।

जीवन के अर्थ की क्या सिध्दि यह कोई नहीं,
देके सुख देखें हम आप सुख मान के;
तेरी अर्थ बुध्दि, नर! भारी इस अर्थ तक,
पहुँचेगी कभी, वाणी आई यह ठान के ।।14

चौंके हम पास ही झपटे के समेत सुन,
भूँकने का शब्द, फिर आँख जो उठाते हैं;
ऊपर अगोछेवाली पोटली का स्वामी अब,
एक मोटे पिंगल कपीश जी को पाते हैं।
बैठे एक डाल पर लेके उसी में से कुछ,
मौज से उड़ाते, कुछ फेंकते गिराते हैं;
कुक्कुर की कूद-फाँद साथ में लगाए हुए,
नीचे खडे 'नंदन जी' लाठी लपकाते हैं ।।15

देते हैं घुड़की यह अर्थ ओज-भरी हरि,
जीने का हमारा अधिकार क्या न गया रह?
पर-प्रतिषेध के प्रसार बीच तेरे, नर!
क्रीड़ामय जीवन उपाय हैं हमारा यह।
दानी जो हमारे रहे वे भी दास तेरे हुए,
उनकी उदारता भी सकता नहीं हैं सह;
फूली-फली उनकी उमंग उपकार की तू,
छेंकता हैं जाता, हम जायँ कहाँ तूही कह ।।16

वंचना के साधक पाखंड के प्रयोजन के,
'चोरी', 'बटपारी' आदि शब्द ये हमारे हैं;
मोटी देह होती हैं हमारी जिन दुबलों की,
रोटी छीन वे ही दोषभार धरे सारे हैं।
जिनकी बुराई में भलाई हैं हमारी बसी ,
अपनी वार्ता में हित हमसे वे हारे हैं;
ढोंग पर सारे इस मुँह का चिढ़ाना कपि!
देखते किसी का हम मुँह में तुम्हारे हैं ।।17

('माधुरी', अगस्त, सितंबर, 1928)