भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

विरह सप्तक / रामचंद्र शुक्ल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:04, 2 जून 2013 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तन में भरम रमायो त्यागी राज,
सहन कठिन दुख कीन्ह्यों जिनके काज,
तनिक दया नहिं आई तिनके हाय!
महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।1
 
भूलि गयो सब पूजा पाठ विचार,
केवल उनको ध्यान भयो आधार,
पल पल युग युग सम बीतत हैं हाय!
महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।2
 
निशि नहिं आवत नींद न दिन में चैन,
अश्रु सबै व्यय भये सूखिगे नैन।
प्रीतम निश्चय हमको गये विहाय,
महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।3
 
कोकिल कूक सुनाय बढ़ावत पीर,
सुनि चातक के शब्द रहत नहिं धीर।
दिन दिन जिय की जलन अधिक अधिकाय,
महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।4
 
घन गर्जन सुनि मोर मचावत शोर,
सिर उठाय हैं चितवत नभ की ओर।
विरहिन को हैं शिक्षा देत सिखाय,
महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।5
 
रही मिलन की अब नहिं तनिकहु आश,
सब दिन की अभिलाषा भई निराश।
क्षमा दानहू दीन न प्रीतम हाय।
महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।6
 
प्रीतम की नहिं सेवा नेकहु कीन,
जन्म वृथा जग में जगदीश्वर दीन।
जीवन केवल दुख में दियो बिताय,
महा कठिन दुख विरह सह्यो नहिं जाय ।।7
 
('लक्ष्मी', जनवरी, 1913)