पराए शहर में माँ की याद / कुमार अनुपम
एक दिन जब समुंदरों में नहीं बचेगा एक कतरा भी नमक
इस समय खुद पर गुजर रहे विकट क्षणों की एक एक खरोंच को
खुरच खुरच पुनः महसूस करूँगा रोऊँगा अथक विलाप करूँगा
और समुंदरों को आँसुओं से पाट दूँगा
ऐसे ही आपातकाल के मद्देनजर इन्हें खर्चता नहीं
एक दिन जब पृथ्वी पर गर्म हाथों की आहट को मशीनों की धड़धड़ाहट
से चुप करने का कार्यक्रम होगा सफलता के अतिनिकट
चिल्लाऊँगा अछोर चीखूँगा
और असह्य कष्टों को झेलते हुए बचाई गई चीख को मशीनों पर दे मारूँगा
ऐसे ही आपातकाल के मद्देनजर फिलहाल चुप हूँ
एक दिन जब विकट शांति होगी
नदियों के बहने और हवा के चलने तक की नहीं होगी आवाज
उछलूँगा कूदूँगा पगला जाऊँगा और
जिंदा रहने के सारे नियम अनुशासन तोड़ डालूँगा
ऐसे ही आपातकाल के मद्देनजर मूर्खता की हद तक शालीन हूँ अभी
एक दिन जब दिन में रात हो जाएगी अचानक
और कुछ संभव नहीं होगा अधिक
खुद को
आग को सौंप दूँगा रोशनी करूँगा भरसक
ऐसे ही आपातकाल के मद्देनजर बना पड़ा हूँ अभी ठूँठ।