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हमारी कहानियाँ / कुमार अनुपम

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हम बच्चे थे सिर्फ
नाम भले हों अलग अलग
जैसे हर नदी
होती है फकत नदी
 
हम बच्चे थे
किंतु लोग तो यहाँ तक कहते थे
कि हमारे हिरन के पाँव हैं
 
बचपन में टहलते हुए
हम लौटते थे थकान के साथ साथ
हमारी थकान की शरमीली सहेली थी एक
जब हम आँखें मूँद लेते
चुप्पे चुप्पे आती थी वो
फिर तो
हम घर-घरौंदा खेलते
पापा-ममी खेलते
आइस-पाइस खेलते
और खिलखिलाते रहते
 
हम बच्चे थे
और हमारी कहानियाँ थीं
 
हमारी कहानियों में
पहाड़ों से उतरी हुई नदियों का
कुतूहल था
नदियों के कुतूहल वाली हमारी कहानियों में
था कई उपकहानियों का सुराग
जो चिकनी कौड़ियों
सतरंगी सीपियों और
मोरपंखियों-सा दिलफरेब था
हमारी कहानियों में कितने ही
आमों का रस था महुओं की चटख महक थी
गुलेल की कंकड़ी से भी तेज
दौड़ थी
दादी रैफुल की बकरी
के कच्चे दूध की गुनगुनाहट थी
पहाड़ों को ढोती हुई
उठक बैठक थी हमारी कहानियों में
 
हमारी कहानियों में महानायक थे हम
और खलनायक भी
 
हम बच्चे थे
और हमारी कहानियाँ थीं
 
हमारी कहानियाँ घटनाओं की तरह
रहती हैं अब भी
इसी समय
इसी कालखंड के इसी शहर में
जो गाहेबगाहे
मिल जाती हैं परिचित चेहरों की तरह
किंतु जब तक आए आए याद
सोख लेता है उन्हें
शहर का तमाम धुआँ और शोर और रफ्तार