भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिल का छाला / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:48, 9 जून 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गईं चरने कितनी आँखें।
बँधी है बहुतों पर पट्टी।
अधखुली आँखें क्यों खुलतीं।
बनी हैं धोखे की टट्टी।1।

किसी से आँसू छनता है।
किसी में है सरसों फूली।
देख भोला भाला मुखड़ा।
आँख कितनी ही है भूली।2।

रही सब दिन कोई नीची।
नहीं ऊँची कोई होती।
आँख कोई अंगारा बन।
आग ही रहती है बोती।3।

मचलती मिलती है कितनी।
अंधेरा कितनी पर छाया।
दिखाई ऐसी भी आँखें।
पड़ा परदा जिन पर पाया।4।

नहीं मिलते आँखों वाले।
पड़ा अंधों से है पाला।
कलेजा किसने कब थामा।
देख छिलते दिल का छाला।5।