भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

होली की रात / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:24, 17 अक्टूबर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बरसते हो तारों के फूल

छिपे तुम नील पटी में कौन?

उड़ रही है सौरभ की धूल

कोकिला कैसे रहती मीन।


चाँदनी धुली हुई हैं आज

बिछलते है तितली के पंख।

सम्हलकर, मिलकर बजते साज

मधुर उठती हैं तान असंख।


तरल हीरक लहराता शान्त

सरल आशा-सा पूरित ताल।

सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त

बिछा हैं सेज कमलिनी जाल।


पिये, गाते मनमाने गीत

टोलियों मधुपों की अविराम।

चली आती, कर रहीं अभीत

कुमुद पर बरजोरी विश्राम।


उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय

अरे अभिलाषाओं की धूल।

और ही रंग नही लग लाय

मधुर मंजरियाँ जावें झूल।


विश्व में ऐसा शीतल खेल

हृदय में जलन रहे, क्या हात!

स्नेह से जलती ज्वाला झेल

बना ली हाँ, होली की रात॥