भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अतिथि / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:24, 17 अक्टूबर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर हटे रहते थे हम तो आप ही

क्यों परिचित हो गये ? न थे जब चाहते-

हम मिलना तुमसे। न हृदय में वेग था

स्वयं दिखा कर सुन्दर हृदय मिला दिया


दूध और पानी-सी; अब फिर क्या हुआ-

देकर जो कि खटाई फाड़ा चाहते?

भरा हुआ था नवल मेघ जल-बिन्दु से,

ऐसा पवन चलाया, क्यों बरसा दिया?


शून्य हृदय हो गया जलद, सब प्रेम-जल-

देकर तुन्हें। न तुम कुछ भी पुलकित हुए।

मरु-धरणी सम तुमने सब शोषित किया।

क्या आशा थी आशा कानन को यही?


चंचल हृदय तुम्हारा केवल खेल था,

मेरी जीवन मरण समस्या हो गई।

डरते थे इसको, होते थे संकुचित

कभी न प्रकटित तुम स्वभाव कर दो कभी।