बेचैनी / बसंत त्रिपाठी
यह गायब हो रही जगह है
गुम हो चुकी पहचान
मैं अपनी ही ऊब की जेब में
चलन से बाहर हो चुकी चवन्नी की तरह गिरता हूँ
कोई मुझे संग्रहालयों की ओर ठेलता है
धूल खाती किताबों के बीच की खाली जगहों में
कोई रख देना चाहता है हमेशा के लिए मुझे
महत्व खो चुकी किताबों की तरह
खुशी और दुख की सरहदों पर खड़ा हूँ मैं
दोनों ही दुनियाओं से बेदखल
सुनी-सुनाई कथाओं की तरह चुपचाप धड़क रहा हूँ
कबाड़ में पड़े समय के सीने में
और यह जो थोड़ी-सी नमी
मेरी खुश्क साँसों में है
वही मेरे उधड़े चेहरे को सिलती है
यहाँ से मुझे चलना है उस ओर
जहाँ मेरी नाल गड़ी है
उन बेरंग मकानों की पस्त होती दीवारों की ओर
धूप ने बहुत पहले से जिन्हें चूमना छोड़ दिया है
जहाँ हथेलियों की थाप तक नहीं है
नींद से उठते सपनों ने जिन्हें नहीं छुआ है बरसों से
बहुत आसान है
अपने समय पर मुक्के बरसाना
और खुश होना अपनी कागजी बहादुरी पर
मैं इन सबसे परे जाने की कोशिश में
छटपटाता हूँ
हाँफता हूँ
अस्थमे के मरीज की तरह बेचैन तड़पता हूँ
मेरी साँसों की तेज आवाजें
शायद तुम तक पहुँच रही होंगी